chahdhala

 पहली  ढाल

तीन  भुवन   में   सार,   वीतराग विज्ञानता ।

शिवस्वरूप शिवकारनमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं॥

 

जे त्रिभुवन में जीव अनन्तसुख चाहैं दु:खतैं भयवन्त ।

तातैं दु:खहारि सुखकारकहैं सीख गुरु करुणा धार॥ 1

 

ताहि  सुनो भवि मन थिर आनजो चाहो अपनो कल्यान।

मोह-महामद पियो अनादिभूल आपको भरमत वादि॥2

 

तास भ्रमण की है बहु कथापै कछु कहूँ कही मुनि यथा।

काल अनन्त निगोद मंझारबीत्यो एकेन्द्री-तन धार॥ 3

 

एक श्वास में अठदस बारजन्म्यो मर्यो भर्यो दु:ख भार।

निकसि भूमि-जल-पावकभयो,पवन-प्रत्येकवनस्पति थयो॥4

 

दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणित्यों पर्याय लही त्रसतणी।

लट पिपीलि अलि आदि शरीरधरिधरि मर्यो सही बहुपीर॥5

 

कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयोमन बिन निपट अज्ञानी थयो।

सिंहादिक सैनी ह्वै  कू्रर,  निबल-पशु हति खाये भूर॥ 6

 

कबहूँ आप भयो बलहीनसबलनि करि खायो अतिदीन।

छेदन भेदन भूख पियासभार वहन हिम आतप त्रास ॥ 7

 

वध-बन्धन आदिक दु:ख घनेकोटि जीभतैं जात न भने ।

अति संक्लेश-भावतैं मर्योघोर श्वभ्र-सागर में पर्यो॥ 8

 

तहाँ भूमि परसत दु:ख इसोबिच्छू सहस डसै नहिं तिसो ।

तहाँ राध श्रोणित-वाहिनी,कृमि-कुल-कलितदेहदाहिनी॥9

 

सेमर-तरु- दल जुत असिपत्रअसि ज्यों देह विदारै तत्र।

मेरु समान लोह गलि जाय,ऐसी शीत उष्णता थाय ॥ 10

 

तिल-तिल करैं देह के खण्डअसुर भिडावैं दुष्ट प्रचण्ड।

सिन्धु-नीरतैं प्यास न जायतो पण एक न बूँद लहाय॥ 11 

 

तीन लोक को नाज जु खायमिटै न भूख कणा न लहाय।

ये दु:ख बहु सागर लौं सहैकरम जोग तैं नर गति लहै॥12

 

जननी-उदर वस्यो नव मासअंग-सकुचतैं पाई त्रास।

निकसत जे दु:ख पाये घोरतिनको कहत न आवे ओर॥13

 

बालपने में ज्ञान न लह्योतरुण समय तरुणीरत रह्यो।

अर्धमृतक सम बूढापनोंकैसे रूप लखै आपनो ॥ 14

 

कभी अकाम निर्जरा करैभवनत्रिक में सुर-तन धरै।

विषयचाह-दावानल दह्योमरत विलाप करत दु:ख सह्यो॥15

 

जो विमानवासी हूँ थायसम्यग्दर्शन बिन दु:ख पाय।

तहँ ते चय थावर-तन धरैयों परिवर्तन पूरे करै ॥ 16

 

दूसरी ढाल

ऐसे मिथ्यादृग-ज्ञानचरण,वश भ्रमत भरत दु:ख जन्म-मरण।

तातैं इनको तजिये सुजानसुन तिन संक्षेप कहूँ बखान॥1

 

जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्वसरधै तिनमाँहि विपर्ययत्व।

चेतन को है उपयोग रूपविन मूरति चिन्मूरति अनूप॥ 2

 

पुद्गल नभ धर्म अधर्म कालइनतैं न्यारी है जीव-चाल।

ताकों न जान विपरीत मानकरि करै देह में निज पिछान।। 3

 

मैं सुखी दुखी मैं रंक रावमेरे धन गृह गोधन प्रभाव।

मेरे सुत तिय मैं सबल दीनबेरूप सुभग मूरख प्रवीन॥ 4

 

तन उपजत अपनी उपज जानतन नशत आपको नाश मान।

रागादि प्रगट जे दु:ख दैनतिनही को सेवत गिनत चैन॥ 5

 

शुभ-अशुभ-बन्ध के फल मंझार,रति अरति करै निजपद विसार।

आतमहित-हेतु विराग-ज्ञानते लखें आपको कष्ट दान॥ 6

 

रोके न चाह निज शक्ति खोयशिवरूप निराकुलता न जोय।

याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञानसो दु:खदायक अज्ञान जान॥ 7

 

इन जुत विषयनि में जो प्रवृत्तताको जानहु मिथ्याचरित्त।

यों मिथ्यात्वादि निसर्ग जेहअब जे गृहीत सुनिये सु तेह॥ 8

 

जे कुगुरु  कुदेव कुधर्म  सेवपोषैं चिर दर्शनमोह एव।

अन्तर रागादिक धरैं जेहबाहर धन अम्बरतैं सनेह॥ 9

 

धारैं कुलिंग लहि महत-भावते कुगुरु जन्म-जल-उपल-नाव।

जे रागद्वेष-मल करि मलीनवनिता गदादिजुत चिह्न चीन10

 

ते हैं कुदेव तिनकी जु सेवशठ करत न तिन भवभ्रमण-छेव।

रागादि-भाव हिंसा समेतदर्वित त्रस-थावर मरन-खेत॥ 11

 

जे क्रिया तिन्हैं जानहु कुधर्मतिन सरधै जीव लहै अशर्म।

याकूँ गृहीत मिथ्यात्व जानअब सुन गृहीत जो है अज्ञान॥12

 

एकान्तवाद दूषित समस्तविषयादिक-पोषक अप्रशस्त।

कपिलादिरचित श्रुत को अभ्याससो है कुबोध बहु देन त्रास॥13

 

जो ख्याति-लाभ पूजादि चाहधरि करन विविध-विध देहदाह।

आतम अनात्म के ज्ञान-हीनजे जे करनी तन करन-छीन॥14

 

ते सब मिथ्याचारित्र त्यागअब आतम के हित-पन्थ लाग।

जगजाल भ्रमण को देहु त्यागअब दौलत’ निज आतम सुपाग

 

तीसरी ढाल

आतम को हित है सुखसो सुख आकुलता बिन कहिये।

आकुलता  शिवमाँहि न तातैंशिव-मग लाग्यो चहिये॥

सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चरन शिवमग सो दुविध विचारो।

जो  सत्यारथरूप  सु  निश्चय,  कारन सो व्यवहारो॥1

 

पर-द्रव्यनतैं  भिन्न  आप  में,  रुचि सम्यक्त्व भला है।

आप रूप  को   जानपनो,   सो  सम्यग्ज्ञान कला है॥

आप  रूप में  लीन रहे  थिर,  सम्यक्चारित्र सोई।

अब व्यवहार मोक्ष मग सुनियेहेतु नियत को होई॥2

 

जीव-अजीव तत्त्व अरु आस्रवबन्धरु संवर जानो।

निर्जर मोक्ष कहे जिन तिनको,  ज्यौं का त्यौं सरधानो॥

है सोई  समकित  व्यवहारी,  अब इन रूप बखानो।

तिनको सुनि सामान्य-विशेषैदृढ प्रतीति उर आनो॥3

 

बहिरातमअन्तर-आतम,   परमातम   जीव  त्रिधा  है ।

देह जीव को एक गिनै   बहिरातम - तत्त्व मुधा  है ॥

उत्तम  मध्यम  जघन  त्रिविध  केअन्तर-आतम-ज्ञानी।

द्विविध संग बिन शुध-उपयोगीमुनि उत्तम निजध्यानी॥4

 

मध्यम  अन्तर  आतम  हैं  जे,  देशव्रती अनगारी।

जघन कहे अविरत - समदृष्टी,  तीनों शिवमगचारी॥

सकल निकल परमातम द्वैविधतिनमें घाति निवारी।

श्री अरहन्त सकल परमातम,  लोकालोक-निहारी॥5

 

ज्ञानशरीरी  त्रिविध  कर्ममल  - वर्जितसिद्ध महन्ता।

ते हैं  निकल अमल  परमातमभोगैं शर्म अनन्ता॥

बहिरातमता  हेय  जानि  तजि,  अन्तर  आतम हूजै।

परमातम को ध्याय निरन्तरजो नित आनन्द पूजै॥6

 

चेतनता  बिन  सो अजीव  हैं,  पञ्च भेद ताके हैं।

पुद्गल पंच  वरन  रस  गन्ध  दोफरस वसु जाके हैं॥

जिय - पुद्गल को   चलन  सहाई,  धर्म द्रव्य अनरूपी।

तिष्ठत होय अधर्म सहाईजिन बिनमूर्ति निरूपी॥7

 

सकल - द्रव्य को वास जास मेंसो आकाश पिछानो।

नियत वरतना निशि-दिन सोव्यवहार काल परिमानो॥

यों अजीवअब आस्रव सुनियेमन-वच-काय त्रियोगा।

मिथ्या अविरत अरु कषायपरमादसहित उपयोगा॥8

 

ये ही आतम को दु:ख - कारन,  तातैं  इनको तजिये।

जीव-प्रदेश बँधै  विधि सों सो,  बन्धन  कबहुँ    सजिये॥

शम-दमतैं  जो   कर्म    आवैंसो  संवर आदरिये।

तप-बलतैं विधि-झरन निरजराताहि सदा आचरिये॥9

 

सकल-करमतैं रहित अवस्थासो शिवथिर सुखकारी।

इहिविधि जो सरधा तत्त्वन कीसो समकित व्यवहारी।

देव  जिनेन्द्र  गुरु  परिग्रह  बिन,  धर्म दयाजुत सारो।

येहू मान समकित को कारनअष्ट अंग-जुत धारो॥10

 

वसु मद टारि निवारि त्रिशठताषट् अनायतन त्यागो।

शंकादिक  वसु   दोष बिना संवेगादिक चित पागो॥

अष्ट अंग अरु  दोष  पचीसोंतिन संक्षेप हु  कहिये।

विन जानेतैं  दोष-गुनन  को,   कैसे  तजिये गहिये॥11

 

जिन-वच में शंका नधारि वृषभव-सुख-वांछा भानै।

मुनि-तन मलिन न देख घिनावैतत्त्व कुतत्त्व पिछानै॥

निज-गुन अरु पर औगुन  ढाकै,  वा निज-धर्म-बढ़ावै।

कामादिक कर वृषतैं चिगतेनिज-पर को सु दृढ़ावै॥12

 

धर्मीसों गउ-वच्छ-प्रीति-समकर जिन-धर्म दिपावै।

इन  गुनतैं  विपरीत  दोष  वसु,  तिनकों  सतत खिपावै॥

पिता  भूप  वा  मातुल  नृप  जो,  होय    तो  मद  ठानै।

मद    रूप  कोमद न ज्ञान कोधन बल को मद भानै॥13

 

तप को मदन मद जु प्रभुता कोकरै न सो निज जानै।

मद धारै तो येही दोष वसुसमकित को मल ठानै॥

कुगुरु-कुदेव-कुवृष-सेवक कीनहिं प्रशंस उचरै है।

जिनमुनि जिनश्रुत बिनकुगुरादिक तिन्हैं न नमन करै है॥14

 

दोषरहित  गुनसहित  सुधी  जेसम्यक्दर्श सजै हैं।

चरितमोहवश   लेश    संजमपै सुरनाथ जजै हैं॥

गेही पै गृह  में    रचै  ज्यों,  जलतैं भिन्न कमल है।

नगरनारि को प्यार यथा,  कादे में हेम अमल है॥15

 

प्रथम नरक बिन षट् भू ज्योतिषवान भवन षंढ नारी।

थावर विकलत्रय पशु में नहिंउपजत समकितधारी॥

तीन लोक तिहुँ काल माँहि नहिंदर्शनसो सुखकारी।

सकल धरम को मूल यही इसबिन करनी दुखकारी॥16

 

मोक्ष-महल  की परथम सीढ़ीया बिन ज्ञान चरित्रा।

सम्यकता न  लहै  सो   दर्शन,   धारो भव्य पवित्रा॥

दौल’ समझ सुन चेत सयानेकाल वृथा मत खोवै।

यह नर-भव फिर मिलन कठिन हैजो सम्यक् नहिं होवै॥ 17

 

चौथी ढाल

सम्यक्श्रद्धा धारि पुनिसेवहु सम्यग्ज्ञान।

स्व-पर अर्थ बहु धर्मजुतजो प्रकटावन भान॥

 

सम्यक्साथै ज्ञान होय पै भिन्न अराधो।

लक्षण श्रद्धा जान दुहूमें भेद अबाधो॥

सम्यक् कारण जान ज्ञान कारज है सोई।

युगपत् होतैं हूँ प्रकाश दीपक तैं होई ॥ 1

 

तास भेद दो हैं परोक्ष परतछ तिनमाहीं।

मति श्रुत दोय परोक्ष अक्ष मन तैं उपजाहीं॥

अवधिज्ञान मनपर्जयदो हैं देशप्रतच्छा।

द्रव्य-क्षेत्र-परिमान लियेजानैं जिय स्वच्छा॥ 2

 

सकल द्रव्यके गुण अनन्त परजाय अनन्ता।

जानैं एकै  काल  प्रगट  केवलि  भगवन्ता॥

ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारन।

इह परमामृत जन्म जरा-मृत-रोग-निवारन॥ 3

 

कोटि जन्म तप तपैंज्ञान बिन कर्म झरैं जे।

ज्ञानी के छिन माँहित्रिगुप्ित तैं सहज टरैं ते॥

मुनिव्रत धारअनन्त बार ग्रीवक उपजायो।

पै निजआतमज्ञान बिनासुख लेश न पायो॥4

 

तातैं जिनवर-कथिततत्त्व अभ्यास करीजै।

संशय विभ्रम मोह त्यागआपो लखि लीजै॥

यह मानुष-परजायसुकुल सुनिवो जिन-वानी।

इह विधि गये न मिलैं,सुमणि ज्यों उदधि समानी 5

 

धन समाज गज बाजराज  तो  काज न आवै।

ज्ञान  आपको   रूप  भये,  फिर अचल रहावै॥

तास ज्ञान को कारन स्व-पर-विवेक बखानो।

कोटि उपाय बनाय भव्य ताको उर आनो ॥ 6

 

जे पूरब  शिव  गये,  जाहिं अरु आगे जै हैं।

सो सब महिमा ज्ञानतनी,  मुनिनाथ कहै हैं॥

विषय-चाह-दव-दाह,जगत-जन अरनि दझावै।

तास उपाय न आन ज्ञान-घनघान बुझावै ॥ 7

 

पुण्य-पाप-फलमाहिं हरख विलखौ मत भाई।

यह पुद्गल-परजाय उपजि विनसै फिर थाई॥

लाख बात  की  बात यहै निश्चय उर लावो।

तोरि सकलजग-दन्द-फन्द निज-आतम ध्यावो॥8

 

सम्यग्ज्ञानी  होय  बहुरि  दृढ़  चारित  लीजै।

एकदेश अरु सकलदेशतसु भेद कहीजै॥

त्रस-हिंसा को त्यागवृथा थावर न सँघारै।

पर-वधकार कठोर निन्द्यनहिं वयन उचारै॥ 9

 

जल मृतिका बिन और नाहिं कछु गहै अदत्ता।

निज वनिता बिन सकल नारि सों रहै विरत्ता।

अपनी  शक्ित  विचार,  परिग्रह थोरो राखै।

दश दिश गमन-प्रमानठान तसु सीम न नाखै॥10

 

ताहू में फिर  ग्रामगली गृह बाग बजारा।

गमनागमन प्रमानठान अन सकल निवारा॥

काहू की धन-हानिकिसी जय  हार न चिन्तैं।

देय न सो उपदेश होय अघ बनिज कृषी तैं॥ 11

 

कर  प्रमाद जल भूमिवृक्ष पावक न विराधै।

असि धनु हल हिंसोपकरननहिं दे जस लाधै॥

राग-द्वेष-करतारकथा कबहूँ न सुनीजै।

और हु अनरथदण्ड-हेतुअघ तिन्हैं न कीजै॥ 12

 

धर उर समता-भावसदा सामायिक करिये।

परव - चतुष्टयमाहिं,  पाप तजि प्रोषध धरिये॥

भोग और उपभोगनियम करि ममत निवारै।

मुनि को भोजन देयफेर निज करहि अहारै॥13

 

बारह व्रत  के  अतीचार,  पन-पन न लगावै।

मरण समय संन्यास धारितसु  दोष  नसावै॥

यों श्रावक व्रत पालस्वर्ग  सोलम उपजावै।

तहंतै चय नर-जन्म पाय मुनि ह्वै शिव जावै॥ 14

 

पाँचवी ढाल

मुनि सकलव्रती बड़भागीभवभोगन तैं वैरागी।

वैराग्य उपावन माईचिन्तैं अनुप्रेक्षा भाई॥ 1

 

इन चिन्तत समसुख जागैजिमि ज्वलन पवन के लागै।

जब ही जिय आतम जानैतब ही जिय शिवसुख ठानै2

 

जोवन  गृह  गोधन  नारी,  हय  गय  जन  आज्ञाकारी।

इन्द्रिय भोग छिन थाईसुरधनु चपला चपलाई ॥ 3

 

सुर असुर खगाधिप जेतेमृग ज्यों हरि काल दले ते।

मणि मन्त्र तन्त्र बहु होईमरते न बचावै कोई ॥ 4

 

चहुँगति दु:ख जीव भरै हैंपरिवर्तन पंच करै हैं।

सब विधि संसार असारायामें सुख नाहिं लगारा ॥ 5

 

शुभ-अशुभ करम फल जेतेभोगैं जिय एकहिं तेते।

सुत दारा होय न सीरीसब स्वारथ के हैं भीरी ॥ 6

 

जल-पय ज्यौं जिय-तन मेलापै भिन्न-भिन्न नहिं भेला।

तो प्रगट जुदे धन-धामाक्यों ह्वै इक मिलि सुत रामा॥ 7

 

पल-रुधिर राध-मल-थैलीकीकस वसादि तैं मैली।

नवद्वार बहैं घिनकारीअस देह करै किम यारी ॥ 8

 

जो जोगन की चपलाई,  तातैं  ह्वै  आस्रव भाई।

आस्रव  दुखकार  घनेरे,  बुधिवन्त तिन्हैं निरवेरे ॥ 9

 

जिन पुण्य-पाप नहिं कीनाआतम अनुभव चित दीना।

तिन ही विधि आवत रोकेसंवर लहि सुख अवलोके॥10

 

निज काल पाय विधि झरनातासौं निज-काज न सरना।

तप करि जो कर्म खिपावै,सोई शिवसुख दरसावै ॥11

 

किन हू न कर्यो न धरै कोषट्द्रव्यमयी न हरै को।

सो लोकमाँहिं बिन समता,दु:ख सहै जीव नित भ्रमता12

 

अन्तिम ग्रीवक लौं की हदपायो अनन्त बिरियाँ पद।

पर सम्यग्ज्ञान न  लाधौदुर्लभ निज में मुनि साधौ ॥13

 

जे  भाव  मोह तैं  न्यारे,   दृग  ज्ञान व्रतादिक सारे।

सो धर्म जबै जिय धारैतब ही सुख अचल निहारै ॥14

 

सो धर्म मुनिन करि धरिये,  तिनकी करतूति उचरिये।

ताको सुनिये भवि प्रानीअपनी अनुभूति पिछानी॥15

 

छठवीं ढाल

षट्काय जीव न हनन तैंसब विधि दरब-हिंसा टरी।

रागादि भाव  निवारतैं,  हिंसा न भावित अवतरी॥

जिनके न लेश मृषा न जल  मृण हू बिना  दीयो गहैं।

अठदशसहस विधि शीलधरचिद्ब्रह्म में नित रमि रहैं1

 

अन्तर चतुर्दश भेद बाहिरसंग दशधा तैं टलैं।

परमाद तजि चउ कर मही लखिसमिति ईर्या तैं चलैं॥

जग सुहितकर सब अहितहरश्रुतिसुखद सब संशय हरैं।

भ्रम-रोग-हर जिनके वचनमुखचन्द्र तैं अमृत झरैं॥ 2

 

छ्यालीस दोष बिना सुकुलश्रावक तनैं घर अशन को।

लैं तप  बढ़ावन  हेतुनहिं तन पोषते तजि रसन को।

शुचि ज्ञान संयम उपकरण,  लखिकैं गहैं लखिकैं धरैं।

निर्जन्तु थान विलोक तन-मलमूत्र श्लेषम परिहरैं॥ 3

 

सम्यक् प्रकार निरोध  मन-वच-काय आतम ध्यावते।

तिन सुथिर-मुद्रा देखि मृग-गणउपल खाज खुजावते॥

रस रूप गन्ध तथा फरसअरु शब्द शुभ असुहावने।

तिनमें न राग विरोधपंचेन्द्रिय-जयन पद पावने॥ 4

 

समता सम्हारैं थुति उचारैंवन्दना जिनदेव को।

नित  करैं  श्रुतरति करै प्रतिक्रमतजैं तन अहमेव को॥

जिनके न न्हौंन न दन्त-धोवनलेश अम्बर आवरन।

भूमाहिं पिछली रयनि में कछुशयन एकासन करन॥5

 

इक बार दिन में लैं अहारखड़े अलप निज पान में।

कचलोंच करत न डरत परीषहसों लगे निज ध्यान में॥

अरि मित्र महल मसान कंचन-काच निन्दन-थुति करन।

अर्घावतारन असि-प्रहारनमें सदा समता धरन ॥ 6

 

तप तपै  द्वादश  धरैं  वृष  दश,  रत्न-त्रय सेवैं सदा।

मुनि-साथ में वा एक विचरैं चहैं नहिं भव-सुख कदा॥

यों है  सकलसंयमचरित,  सुनिये  स्वरूपाचरन  अब।

जिस होत प्रगटै आपनी निधिमिटै पर की प्रवृत्ति सब॥7

 

जिन  परमपैनी  सुबुधि - छैनी,  डारि  अन्तर  भेदिया।

वरणादि अरु रागादि तैंनिज-भाव  को  न्यारा किया।।

निजमाहिं निज के हेतु निज करआपको आपै गह्यो।

गुण गुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेयमंझार कछु भेद न रह्यो॥ 8

 

जहँ ध्यान ध्याता ध्येय को नविकल्प वच भेद न जहाँ।

चिद्भाव  कर्म  चिदेश  कर्ता,  चेतना  किरिया तहाँ॥

तीनों अभिन्न अखिन्न शुध उपयोग  की  निश्चल दसा।

प्रगटी जहाँ दृग-ज्ञान-व्रत ये तीनधा एकै लसा ॥ 9

 

परमाण  नय  निक्षेप  को    उद्योत अनुभव में दिखैं।

दृग-ज्ञान-सुख-बलमय सदानहिं आन भाव जु मो विखैं।

मैं साध्य साधक मैं अबाधककर्म अरु तसु फलनितैं।

चित् पिण्ड चण्ड अखण्ड सुगुणकरण्ड च्युत पुनि कलनितैं॥10

 

यों चिन्त्य निज में थिर भयेतिन अकथ जो आनन्द लह्यो।

सो इन्द्र नाग  नरेन्द्र  वा,  अहमिन्द्र के  नाहीं कह्यो॥

तब ही शुकलध्यानाग्िन करिचउ-घातिविधि कानन दह्यो।

सब लख्यो केवलज्ञान करिभविलोक को शिवमग कह्यो॥11

 

पुनि घाति शेष अघातिविधिछिन माहिं अष्टम-भू बसैं।

वसुकर्म विनसै सुगुण वसुसम्यक्त्व आदिक सब लसैं॥

संसार  खार   अपार   पारावार,  तरि  तीरहिं  गये।

अविकार अकल अरूप शुचि,चिद्रूप अविनाशी भये ॥ 12

 

निजमाँहि लोक अलोक गुणपरजाय प्रतिबिम्बित थये।

रहि हैं अनन्तानन्तकाल,   यथा  तथा  शिव  परिणये॥

धनि धन्य हैं जे जीवनर-भव पाययह कारज किया।

तिनही अनादि भ्रमण पञ्च प्रकार तजि वर सुख लिया॥13

 

मुख्योपचार  दुभेद   यों  बड़भागि   रत्नत्रय   धरैं।

अरु धरैंगे ते शिव लहैं तिनसुयश-जल-जग-मल हरैं॥

इमि जानि आलस हानिसाहस ठानि यह सिख आदरो।

जबलौं न रोग जरा गहै तबलौं झटिति निज हित करो॥14

 

यह राग  आग  दहै  सदा,   तातैं  समामृत सेइये।

चिर भजे विषय  कषाय  अब  तो त्याग निजपद बेइये॥

कहा रच्यो पर-पद में न तेरो पद यहै क्यों दु:ख सहै।

अब दौल’ होउ सुखी स्व-पद रचिदाव मत चूकौ यहै15

 

दोहा

इक नव  वसु  इक  वर्ष कीतीज शुकल वैशाख।

कर्यो तत्त्व उपदेश यहलखि बुधजन’ की भाख॥1

 

लघु-धी तथा प्रमादतैंशब्द - अर्थ  की भूल।

सुधी सुधार पढ़ो सदाजो पावो भव-कूल॥2

01