पाठ - 9
मिथ्यात्व
तत्वों पर यथार्थ श्रद्धान नहीं होना ही मिध्यात्व है अथवा सच्चे देव , शास्त्र , गुरु पर श्रद्धानन करना या झट । दव , शास्त्र , गुरु का श्रद्धान करना मिथ्यात्व है । विपरीत या गलत धारणा का नाम मिथ्यात्व है । मिथ्यात्व के उदय से जाव का सच्चा धर्म नहीं रुचता है । जैसे - पित्त के रोगी को दूध भी कड़वा लगता है ।
मिथ्यात्व के दो भेद होते हैं - गृहीत एवं अगृहीत ।
गृहीत मिथ्यात्व - पर के उपदेश आदि से कदेवादि में जो श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है , उसे गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं ।
अगृहीत मिथ्यात्व - अनादिकाल से किसी के उपदेश के बिना शरीर को ही आत्मा मानना व पुत्र , धन आदि में अपनत्व करना , अगृहीत मिथ्यात्व है ।
मिथ्यात्व के पाँच भेद भी होते हैं ।
( 1 ) विपरीत - जीवादि पदार्थों में विपरीत मान्यता एवं अधर्म को धर्म मानना ही विपरीत मिथ्यात्व है । जैसे - शरीर को ही आत्मा मानना ।
( 2 ) एकान्त - जीवादि पदार्थों में पाये जाने वाले अनेक धर्मों में से एक धर्म को ही स्वीकार करना एकान्त मिथ्यात्व है । जैसे - पदार्थ को नित्य ही मानना ।
( 3 ) विनय - सच्चे देव , शास्त्र , गुरु एवं अन्य मिथ्या देव , शास्त्र , गुरुको समान मानता विनय मिथ्यात्व है । जैसे - अरिहंत देव तथा अन्य देवों की समान विनय करना ।
( 4 ) संशय - सद् - असद् धर्म में सच्चे धर्म का निश्चय नहीं होना संशय मिथ्यात्व है । जैसे - स्वर्ग - नरक होते भी हैं या नहीं ।
( 5 ) अज्ञान - जीवादि पदार्थों के समझने का प्रयास न करना अज्ञान मिथ्यात्व है ।
इस तरह सामान्य से मिथ्यात्व के पाँच भेद हैं । आगम में अधिक भेद करने से 363 भेद भी वर्णित हैं अथवा विस्तार से असंख्यात लोक प्रमाण भेद भी कहे जाते हैं ।
भारतवर्ष में अनेक राजा हुए हैं । उनमें से एक राजा धनदत्त कानपुर में राज्य करता था । राजा धनदत्त का मन्त्री श्रीवंदक बौद्ध धर्म का अनुयायी था । एक दिन राजा एवं मंत्री दोनों राजमहल की छत पर विचार - विमर्श कर । रहे थे । अकस्मात् आकाश मार्ग से आते हए दो चारण ऋद्धिधारी मनिराज दिखे । राजा ने वन्दना करके उन्हें काष्ठासन । पर विराजमान होने का अनुरोध किया ।
मुनिराज ने वहाँ पर धर्मोपदेश दिया , जिससे प्रभावित होकर श्रीवंदक मंत्री ने सम्यक्त्व सहित श्रावक के । व्रत ग्रहण कर लिए । उस दिन मन्त्री अपने बौद्ध गुरुओं की वन्दना के लिए नहीं गया । यह देखकर बौद्ध गुरु ne use bulaya फिर भी उसने वन्दना नहीं की और सारी बातें सना दी । बौद्ध संघ के गरुओं ने उसे अनेकों उपदेश देकर र बौद्ध धमी बना लिया । श्रीवंदक फिर संघ की मीठी - मीठी बातों में आ गया और सम्यक्त्व से विचलित हो । गया ।
दूसरे दिन राजसभा में राजा ने बड़े हर्षोल्लास से चारण ऋद्धिधारी मनियों के आने का समाचार सभी प्रजाजनों को सुनाया । उनमें से कुछ लोग आश्चर्य से राजा की तरफ देख रहे थे । राजा ने अपनी बात के समर्थन के । लिए मंत्री से कहा मंत्री जी ! कल मध्याह्न की घटना के शभ समाचारों से सभा को अवगत कराईये । " मंत्री ने कहा - " महाराज ! मैंने तो ऐसे किसी भी मुनि को नहीं देखा और यह बात सम्भव नहीं कि कोई मनुष्य आकाश में । ( गमन कर ) चल सके " पापी श्रीवंदक का इतना कहना ही था कि उसी समय उसकी दोनों आँखें मनि निन्दा और । मिथ्यात्व से फूट गयी । इस घटना को देखकर राजा और प्रजाजनों ने जिनधर्म की खब प्रशंसा की और सभी सभासदों के सामने मिथ्यात्व का दुष्परिणाम देखकर सभी ने जैनधर्म को धारण कर लिया ।
शिक्षा - अनादिकाल से मिथ्यात्व में फंसे होने के कारण हमारी यह दुर्दशा हो रही है अतः हमें इसको छोड़ना चाहिए । मिथ्यात्व वह दावाग्नि है जो कि हमारी मानव रूपी श्रेष्ठ पर्याय को भस्म ( नष्ट ) कर रही है । इसलिए हमें शीघ्र ही मिथ्यात्व को नष्ट करना चाहिए
अभ्यास प्रश्न
1 . मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?
2 . गृहीत और अगृहीत मिथ्यात्व में क्या अन्तर है ?
3 . मिथ्यात्व के पाँच भेद कौन - कौन से हैं ?
4 . विपरीत और एकान्त मिथ्यात्व का लक्षण लिखिए ।
5 . मिथ्यात्व के अधिक से अधिक कितने भेद हो सकते हैं ?