पाठ - 13
गुरुदेव स्तुति
अहो ! जगतगुरु देव , सुनियो अरज हमारी ।
तुम प्रभु दीनदयाल , मैं दुखिया संसारी ॥ 1 ॥
इस भव - वन के माहिं , काल अनादि गमायो ।
भ्रमत चहुँगति माहि , सुख नहिं , दुख बहु पायो । । 2 । ।
कर्म महारिपु जोर , एक न कान करें जी ।
मनमान्यां दुख देहि , काहसों नाहिं डरै जी ॥ 3 ॥
क बहूँ इतर निगोद , कबहूं , नर्क दिखावै ।
सुरनरपशुगति माहिं , बहु विधि नाच - नचावै । । 4 । ।
प्रभु ! इनके परसंग , भव - भव माहिं बुरो जी ।
जे दुख देखे देव ! तुमसों नाहिं दुरो जी । । 5 । ।
एक जनम की बात , कहि न सको सुनि स्वामी ।
तुम अनन्त परजाय , जानत अन्तरजामी ॥ 6 ॥
मैं तो एक अनाथ , ये मिलि दुष्ट घनेरे ।
कि यो बहुत बेहाल , सुनियो साहिब मेरे 17 ॥
ज्ञान महानिधि लूटि , रंक निबल करि डार यो ।
इनही तुम मुझ माहि , हे जिन ! अंतर पार्यो ॥ 8 ॥
पाप पुण्य मिल दोय , पायनि बेरी डारी ।
तन कारागृह माहि , मोहि दियो दुख भारी ॥ 9 ॥
इनको नेक विगार , मैं कछु नाहिं कियो जी ।
विन कारन जगवंद्य ! बहुविधि वैर लियो जी० ॥
अब आयो तुम पास सुनि जिन ! सजस तिहारो ।
नीति - निपुन जगराय ! कीजे न्याय हमारो ॥ 11 ॥
दुष्टन देहु निकार , साधुनको रख लीजे ।
विनवै ' भूधरदास ' हे प्रभु ! ढील न कीजे ॥ 12 ॥